Factteller, Fictionteller or Storyteller?
Setting the narrative is art and craft?
--to gain advantage by applying psycological measures and surveillance abuse?
Or maybe for correctional measures?
Depends?
नरेटिव घड़ना अगर कला है, तो नरेटिव के सच को जानना?
कहानियाँ सुनाना, पुरानी कला है। पहले दादा-दादी या नाना-नानी सुनाते थे, तो बच्चे अपने बड़ों से जुड़ाव महसूस करते थे। फिर TV, मोबाइल और इंटरनेट का जमाना आया और लोगों ने अपना वक़्त बच्चों को देने की बजाय, मोबाइल, टीवी या टेबलेट्स, लैपटॉप वैगरह पकड़ाना शुरु कर दिया। इसे ये सब चलाने वालों ने समझा और एक अलग तरह का शोषण शुरु हो गया?
टीवी, मोबाइल, इंटरनेट अच्छा भी दिखाता है और बुरा भी। वक़्त इसके कारण कहाँ जाता है, पता ही नहीं चलता? माँ, बाप भी अपना काम ऐसे में आसानी से कर पाते हैं। क्यूँकि, बच्चे ये सब मिलने के बाद तो माँ, बाप को जैसे भूल ही जाते हैं? और माँ-बाप बच्चों को? दोनों का काम आसान हो गया? या मुश्किल? ये वक़्त बताता है?
ये सिर्फ बच्चों पर लागू नहीं होता। बड़ों पर भी होता है। मतलब, लोग मोबाइल, टीवी, इंटरनेट की दुनियाँ में इतने वयस्त हो गए, की एक दूसरे को ही भूल गए? पहले मुझे लगता था की ये ज्यादातर शहरों की समस्या है। मगर, गाँव आकर समझ आया, की शहरों से ज्यादा, गाँवों या कम पढ़े लिखे लोगों की ज्यादा है? इसलिए उन्हें अपने बच्चों के बारे में ही नहीं पता होता की वो क्या देख रहे हैं, क्या सुन रहे हैं या क्या कर रहे हैं? और घर के लोगों में दूरियाँ बढ़ती जाती हैं। एक दूसरे के बारे में ही नहीं पता, तो वो कैसे घर? कैसा घर-कुनबा? इसका फायदा सर्विलांस एब्यूज करने वाली पार्टियाँ और कम्पनियाँ बड़ी आसानी से भुनाती हैं। ऐसे लोगों को रोबॉट बनाना बहुत ही आसान होता है। एक दूसरे के ही खिलाफ प्रयोग करने में, ये अहम भूमिका निभाता है।
पहले मुझे लगता था की मैं 10th के बाद ही घर और गाँव से दूर हो गई, तो शायद मेरा घर पर विचारों में मतभेद का ये अहम कारण है। क्यूँकि, मैं यहाँ रही ही कहाँ?
यहाँ आकर पता चला, की मैं थोड़ा दूर रहते हुए भी पास थी। कम से कम फ़ोन पर तो, सबसे बात हो जाती थी। यहाँ तो पास होते हुए लोगों के पास वक़्त नहीं, एक दूसरे के लिए। लोगबाग यहाँ आसपास रहते हुए, एक-दूसरे के बारे में कहीं और से ही ज्ञान लेते हैं। और वहीं मार खाते हैं। जो बच्चे स्कूल के बाद ही पढ़ाई छोड़ देते हैं, या स्कूल के वक़्त ही उल्टे-सीधे केसों में फँस जाते हैं, उनके लिए ये दूरी बहुत बड़ी भूमिका निभाती है। राजनीतिक पार्टियाँ ऐसे बच्चों को बर्बाद करने में कोई कसर नहीं छोड़ती।
सामान्तर घड़ाईयाँ, इसका जीता जागता उदाहरण हैं। लेकिन ये सामान्तर घड़ाईयाँ हैं बड़ी अज़ीब। जैसे कुछ एक केसों में पीछे बताया, की कितना बढ़ा-चढ़ाकर या तोड़-मरोड़ कर घड़ी जाती हैं, ये सामान्तर घड़ाईयाँ। थोड़ा पता होगा तो लगेगा, यहाँ और वहाँ जैसे एक जैसा-सा हो रहा है। मगर, जब पास से हर रोज ऐसी सामान्तर घड़ायीयों को होते देखोगे, तब समझ आएगा की बढ़ाना-चढ़ाना, तोड़ना-मरोड़ना या कुछ नया मिर्च-मसाला जोड़ना, ऐसे में कितना आसान है।
जैसे?
कहाँ फेसबुक पर झंडा गाडना और कहाँ किसी लेट को रेत से भरकर, उसपर झंडा गाडना? दोनों एक ही बात हैं क्या?
ऐसे ही जैसे, कहाँ टाँग तुड़वाकर बैड पे पड़ा होना या ऑफिस से छुट्टी लेकर फिजियो और एक्सेरसाइज़ पर सारा दिन बिताना और कहाँ वो तो live-in रह रहे थे का, किसी और स्कूल बच्चे का केस? स्कूल बच्चे का केस?
ऐसे ही जैसे, कहाँ किन्हीं रिश्तों पर जुए के नंबरों की मार और कहाँ किसी को दुनियाँ से ही उठा देना? एक ही बात हैं क्या?
ऐसे ही जैसे, एक कोई छेड़छाड़ या रेप का केस और कहाँ उन्होंने कट्टे से फलाना-धमकाना को उड़ा दिया। एक ही बात है?
ऐसे ही जैसे, कहाँ किताबों का पढ़ना, लाब्रेरी या किताबों का लेन-देन और कहाँ CHAT-GPT, AI और उनके प्रयोग और दुरुपयोग?
ऐसे ही जैसे, कहाँ बन्दूक या पिस्तौल की गोली और कहाँ चोरी-छिपे, खाने-पानी में किन्हीं गोलियों की सप्लाई?
ऐसे ही जैसे, कहाँ किसी चैट में या ऑनलाइन गुनाह के फूटप्रिंट्स का होना और कहाँ मकानों, दुकानों या ऑफिसों की ईमारतों और सामान में?
ऐसे ही जैसे, कहाँ राजनीति के जुए की बिमारियों की घढ़ाईयाँ और कहाँ खाना-पानी और हवा को प्रदूषित कर, लोगों की सेहत या ज़िंदगियों से ही खेलना?
ऐसे ही जैसे?
कितने ही, ऐसे ही जैसे, आपके अपने आसपास भरे पड़े हैं। इन्हें और इनके भेदों या फर्क को समझना बहुत जरुरी है, किसी भी स्वस्थ समाज के लिए या आगे बढ़ने के लिए।
पीछे कुछ अजीबोगरीब से ड्रामे चले। या कहो की रोज चलते ही रहते हैं। मगर, जिनसे वो करवाते हैं, उन्हें उनके दुष्परिणाम कहाँ पता होते हैं? आगे यही ड्रामे करवाने वाले, क्या करेंगे इन लोगों के साथ?