Friday, May 23, 2025

Psychological warfare, know the facts about narratives 10

 डोमेश्वर (D   -omeshwar?) 

Shows and Theatrics? Even Defence Theatre and Theatrics? 

डूम आ रहे हैं? 

Veterans?

और भी कितनी ही तरह के नाम दिए जा सकते हैं? रोमा, यूरोप? गड्डे लुहार, उत्तर भारत? ज्यादातर, समाज के आज के युग से दूर रहने वाले कबीले या लोग?       

और भी कितनी ही तरह के ईश्वर या भगवान या देवी-देवता? जितने इंसान, उतनी ही तरह के भगवान या देवी-देवता? जैसे भगवान और देवी-देवता घड़ना एक कला है, Art and Craft है। 

वैसे ही, और शायद उतनी ही तरह के भूत और भय पैदा करने के तरीके? किसी भी आम इंसान, परिवार या समाज के किसी हिस्से को विचलित करने के लिए? कुछ ना होने देने के लिए या कुछ खास करने या करवाने के लिए? या शायद राक्षस, डायन, विच जैसी wichhunting के लिए?  

Witchhunting? क्या बला है ये?

जिस इंसान को राजनीती, तथ्यों से काबू नहीं कर पाती, वहाँ Character Assassination और Witchhunting का प्रयोग होता है। यहाँ लिंगभेद भी नहीं होता। ये किसी भी लिंग के खिलाफ हो सकता है। या कहो की होता आया है। जितना बड़ा दॉँव लगा होता है, उतने ही ज्यादा घिनौने और बेहुदा तौर-तरीकों का प्रयोग होता है।

और ये सब करने के लिए राजनीती, कैसे और किस तरह के लोगों का प्रयोग या दुरुपयोग करते हैं?

शायद खुद आपका? आपके अपनों का या आसपास वालों का भी? ऐसे लोगों का जिनके अपने कोई निहित स्वार्थ हों? या शायद जो आपसे किसी भी तरह की चिढ़ या जलन रखते हों? या शायद जो किसी भी तरह की असुरक्षा की भावना से ग्रषित हों? जिन्हें खुद अपना महत्व या वैल्यू ना पता हो? ऐसे ही लोग, दुसरों को गिराने का काम करते हैं? क्यूँकि, उनके पास कुछ अच्छा देने के लिए होता ही नहीं? या शायद, उन्हें ऐसा लगता है? इसीलिए, असुरक्षा की भावना लिखा है। ऐसे लोग, जिन्हे खुद का महत्व न पता हो। ऐसे लोगों की असली दिक्कत आप नहीं हैं। खुद उनकी अपनी कोई समस्या, या कमी है शायद?  

जब यूनिवर्सिटी थी, तो लगता था की कुर्सियों की लड़ाई है, जिसमें ऐसे लोग भी झाड़ की तरह पिस रहे हैं, जिन्हे ऐसी-ऐसी कुर्सियों से कोई लगाव नहीं है। गाँव में आसपास के रोज-रोज के भद्दे और बेहूदा ड्रामे देखे, तो समझ आया, की ये कौन-सी कुर्सियों की लड़ाई है? यहाँ तो लोगों के पास, आम-सी सुविधाएँ तक नहीं? ऐसे-ऐसे ड्रामे, जो आदमियों को खा जाएँ? जिस किसी से ये राजनीतिक पार्टियाँ, ये सब ड्रामे करवाएँ, उन्हीं को या उनके अपनों को खा जाएँ? 

कोरोना काल, एक ऐसा दौर था, जहाँ मौतें नहीं, हत्याएँ थी। सिर्फ सत्ता द्वारा? या राजनीतिक पार्टियों की मिलीभगत द्वारा? या राजनीतिक पार्टियों के सिर्फ कुछ लोगों की मिलीभगत द्वारा? दुनियाँ भर के मीडिया ने, या कहो की मीडिया कल्चर ने उसमें बहुत जबरदस्त तड़का लगाया। 

उसके बाद भाभी की मौत के बाद के ड्रामे? कई लोग तो आसपास चलते-फिरते शैतान या डायन जैसे नज़र आ रहे थे। उन बेचारों को शायद यही नहीं समझ आया, की वो बक क्या रहे थे? किसी इंसान के दुनियाँ से ही जाने के बाद, उसकी witchhunting? ऐसे क्या स्वार्थ थे, इन लोगों के? अब पूरे हो गए क्या वो स्वार्थ? Psychological manipulations at extreme जैसे? और कहीं पढ़ने-सुनने को मिला, की इसी को Psychological Warfare कहते हैं। यहाँ कोई असुरक्षा की भावना से ग्रषित इंसान, सामने वाले का किसी भी हद तक नुकसान कर सकता है। आम लोगों की छोटी-छोटी सी असुरक्षा की भावनाओं का दुहन करती, राजनीतिक पार्टियों की बड़ी-बड़ी कुर्सियों की लड़ाईयाँ? क्या का क्या बना देती है?

ये सब यहीं नहीं रुका। आसपड़ोस में भी फैला। वो भी ऐसे की बड़े-बड़े लोग, आत्महत्याएँ कैसे होती हैं या की जाती हैं, ये बता रहे हों? वो भी डॉक्युमेंटेड जैसे? कौन-सी दुनियाँ है ये? जो स्कूल के बच्चे या बच्चियों तक को ना बक्से? सिर्फ राजनीतिक पार्टियों की कुर्सियों की महत्वकाँक्षाओं की वजह से, या शायद बड़ी-बड़ी कंपनियों के बाज़ारवाद की मारकाट की वजह से?  

ऐसे अंजान अज्ञान लोगों को कौन बचा सकता है? क्यूँकि, सारी दुनियाँ तो कुर्सियों या बाजारवाद की दौड़ में नहीं है? संसार का सिर्फ कुछ परसेंट हिस्सा है। और वही मानव रोबॉट घड़ रहा है, कहीं किसी नाम पर, तो कहीं किसी नाम पर। 

Thursday, May 22, 2025

Psychological warfare, know the facts about narratives 8

हर रोज यहाँ पे कुछ न कुछ घटता ही रहता है। कुछ नौटँकी, कुछ ड्रामे, कल्टेशवर (cult-eshwar?) टाइप? क्या है ये कल्टेशवर? या इस तरह के ड्रामे या नौटंकियाँ? आम लोगों की रोजमर्रा की ज़िंदगी के अहम हिस्से जैसे? रोज-रोज उनकी ज़िंदगियों में जो होता है, वो सब। 

मैंने नौकरी से रिजाइन किया ही था, और घर आना-जाना थोड़ा बढ़ गया था। यूनिवर्सिटी में रेगुलर हाउस हेल्प्स को मैं हटा चुकी थी। और ज्यादातर वीकेंड्स पर ही लेबर को बाहर से लेकर आती थी। तो ज्यादातर वीकेंड्स पर, अलग-अलग लेबर होता था। किसी को भी घर में एंट्री से पहले ही, उसके बारे में थोड़ा-बहुत जानकारी लेना पहला काम होता था। ये जानकारी लेना, सिस्टम के कण्ट्रोल चैक पॉइंट्स को समझने में बड़ा मददगार रहा। कौन, कहाँ से है? क्या नाम है? घर में कौन-कौन हैं? रोहतक में कहाँ रहते हैं और कब से रहते हैं? किस तारीख को कौन लेबर आपको मिलेगा और कहाँ से मिलेगा? कहाँ का होगा? उसका नाम, पता क्या होगा? उसके घर पर कौन-कौन होगा? वो कितने पैसे माँगेगा और कैसा काम करेगा; तक जैसे कहीं तय हो रहा हो? और हाँ, किस दिन या तारीख को आपको लेबर नहीं मिलेगा? इतना कुछ कैसे कोई तय कर सकता है? शुरु-शुरु के कुछ महीने तो जैसे, बड़े ही अजीब लगे। और जाने कितने ही प्रश्न दे गए। 

ज्यादा घर आने-जाने ने, यूँ लगा, जैसे इस समस्या को थोड़ा कम दिया। यहाँ पे जो काम करने वाली आती थी, उनसे बात की और उन्होंने हफ़्ते, दो हफ़्ते में एक दो, बार करने के लिए हाँ कर दिया। ये लोग मेरे लिए नए थे। जो बचपन में इन घरों में काम करने आते थे, ये वो नहीं थे। खैर। मेरा काम हो रहा था। और मुझे क्या चाहिए? मगर कुछ ही वक़्त बाद, यहाँ भी आना-कानी शुरु हो गई। काम करने वालों की अपने-अपने घरों की समस्याएँ। थोड़ा बहुत जब उनके बारे में जाना तो लगा, ये तो कुछ ज्यादा ही नहीं हो रहा? गाँव के लोगों की समस्याएँ, अक्सर ज्यादा ही होती है? और थोड़ी अटपटी भी? मगर वो किसी सिस्टम के कल्टेशवर या कल्टेशवरों से भी अवगत करा सकती हैं क्या? तब तक ये cult वाली टर्मिनोलॉजी या ये सब होता क्या है, यही नहीं पता था। 

शिव सोलाह? 

या हनुमान चालीसा? 

संतोषी माँ? 

या शेरा वाली माँ? 

माता धोकन जाऊँ सूँ? 

या झाड़ियाँ की धोक?   

साधारण से लोगों की साधारण-सी ज़िंदगियाँ? या ऐसे-ऐसे सिस्टम की चपेट में ज़िंदगियाँ? ऐसे-ऐसे सिस्टम के कल्टेशवर या कल्टेशवरों की देन?

बीमारियाँ?

भूत कहानियाँ?

मौतें? 

अनाथ बच्चे? 

एक राज्य से दूसरे राज्य में ट्रेड की हुई औरतें?

सिमित ज्ञान और सिमित संसाधन?

और इस सबके बीच या कहो की इस सबको बनाने वाले सिस्टम के कल्टेशवर या कल्टेशवरों का ऐसे-ऐसे अंजान, अज्ञान लोगों का शोषण?      

और जाने क्यों, इस सबने मुझे फिर से यूनिवर्सिटी के H #16, Type-3 वाले स्टोर की याद दिला दी। "मैडम, ये स्टोर मैं साफ़ नहीं करुँगी।"

मगर क्यों? पीछे पढ़ा होगा आपने कहीं, पोस्ट में?                                      

Psychological warfare, know the facts about narratives 9

 तुम अपने घर का स्टोर क्यों नहीं साफ़ कर लेते? उनमें सिस्टम के कल्टेशवर या कल्टेशवरों द्वारा बिठाए नुक्सान पहुँचाने वाले भूतों से मुक्ती क्यों नहीं ले लेते?

और स्टोर ही क्यों? बाकी घर में भी साफ-सफाई करते रहने में क्या बुराई है? दिवाली या त्योहारों पे जो खास-सफाई का चलन है, उसके पीछे शायद ये एक अहम पॉइंट है। दिवाली या त्योहारों के इंतजार की बजाय, उसे हफ़्ते या महीने भर में होने वाली सफाई क्यों नहीं बना लेते? सफाई, जो सिर्फ आपके घर तक सिमित ना रहकर, आसपास का भी ध्यान रखती हो? सफाई ना सिर्फ़ आँखों और मन को शुकुन देती है, बल्की, समृद्धि का भी प्रतीक है। ये सेहत, पैसा और सुख-शांती को आकर्षित करती है। या कहो की सफाई और सेहत, पैसा और सुख-शांती एक दूसरे के प्रतीक हैं? 

सफाई के साथ-साथ, खुले-खुले घर और खुली-खुली जगहें स्वास्थ्य का परिचायक हैं। ऐसी जगहें या घर ना सिर्फ गर्मी-सर्दी को संतुलित रखती है, बल्की, प्रदूषण को भी कम करने का काम करती हैं। कैसे?

एक हज़ार गज में 10 घर और कितने आदमी? कितना पानी, हवा या ज़मीन का प्रयोग या दुरुपयोग? जहाँ पानी नहीं आता या ज़मीन का पानी कड़वा है, वहाँ ये समस्या और भी ज्यादा है। हर घर में तकरीबन वहीँ पे बाथरुम, लैट्रिन और वहीँ पर हैंडपंप या समर्सिबल? गोबर और केमिकल्स भी वहीँ जा रहे हैं और प्रयोग करने के लिए पानी भी वहीँ से लिया जा रहा है?  

दूसरी तरफ 1000 गज में एक या दो घर और कितने आदमी? बाथरुम, लैट्रिन, हैंडपंप या समर्सिबल कितने आसपास या दूर? या शायद पानी की सप्लाई भी बाहर से ठीक ठाक आ रही हो? हैंडपंप या समर्सिबल जैसी कोई बला ही ना हो? 

एक तरफ, अंदर-बाहर दोनों खुले-खुले आँगन और बना हुआ घर। और दूसरी तरफ, खुले घर आँगन को जैसे छोटे-छोटे खामखाँ से कैबिन में बाँट दिया हो? हवा बेचारी कहाँ, कितनी आर-पार होगी? तो गर्मी या सर्दी के क्या हाल होंगे वहाँ?

खुले आँगन में ज़मीन में पेड़ लगाना? या आँगन को भी कैबिन-सा बना, पेड़ों को हटा, छोटे-मोटे एक आध गमलों को जगह? लाभदायक पेड़ों की बजाय खामखाँ से या एलर्जी वाले पेड़ों को जगह? कहीं ठीक-ठाक जगहों के होते हुए भी, तुम्हारे घरों के हुलिए तो नहीं बिगाड़ दिए सिस्टम के इन घड़ने वालों ने? और तुम्हें लग रहा है, की सब खुद तुमने किया है?     

सुना है, की घर में टूटे-फूटे सामान को रखना अशुभ माना जाता था? या तो उसे चलता कर नया ले लिया जाता था या काम का हो, तो ठीक कर लिया जाता था? या देने लायक हो, तो किसी को दान? फिर वो चाहे घर के बर्तन-भाँड़े हों या पहनने या घर में प्रयोग होने वाले किसी भी तरह के कपड़े? ऐसे ही शायद घर की टूट-फूट या रख-रखाव का होता होगा? दिवाली जैसे त्यौहार पर साफ़-सफाई, शायद, इसीलिए ईजाद की गई होगी की ऐसे-ऐसे सामान से भी मुक्ती पाई जा सके? रंग रोगन या थोड़ी बहुत रौनक लाई जा सके? ऐसे सामान से मुक्ती। आप इंसानो से ना समझ बैठना। नहीं तो कहीं कोई बुजुर्ग या बिमार इंसान ये भी कह सकता है, "हाँ, हम भी काम-धाम के नहीं रहे, कर दो चलते" :)    

Psychological warfare, know the facts about narratives 7

 They have seasons. Season 1, season 2, season 3 and so on. 

In which season are you right now?

Evergrowing?

Everlearning?

Evergoing ahead?

Or ever losing?

Depends?


Who has asked this question and for what purpose? There is no one answer or fit for all?

Boss?

Boss? Word is bad enough and better to leave behind? Interesting? 


Is it the purpose or situation at particular time that demans your attention?

Pupose long term. Situation, temporary, but at times, demands attention as well as time.


Since some time, I am hooked to ED. 

ED?

What kind of ED is that? Kinda ED in or ED out? I got many prompts from there for my posts. At times,interesting and helping. At times, as usual like random online stuff.

Balance. Personal and professional space. Home and office duties and responsibilities as well as rights.

Here I did not find jobs, but sermons. Interesting? Job skills? Life skills? Or what's wrong and right at these two places? And how they are so interconnected? People who instead of protecting you, put you through fire? Instead of warning you, put you through trials? Are they family or calling self your people? Maybe extended family?

But then, is not that true for the surrounding also, I am living right now? Remote controlled lives via surveillance abuse? 

Be it so-called extended family or sermon givers themselves, are not they exploiting less priviledged people this way?

Friday, May 16, 2025

Psychological warfare, know the facts about narratives 6

 Factteller, Fictionteller or Storyteller?


Setting the narrative is art and craft? 

--to gain advantage by applying psycological measures and surveillance abuse?

Or maybe for correctional measures?

Depends?

नरेटिव घड़ना अगर कला है, तो नरेटिव के सच को जानना? 

कहानियाँ सुनाना, पुरानी कला है। पहले दादा-दादी या नाना-नानी सुनाते थे, तो बच्चे अपने बड़ों से जुड़ाव महसूस करते थे। फिर TV, मोबाइल और इंटरनेट का जमाना आया और लोगों ने अपना वक़्त बच्चों को देने की बजाय, मोबाइल, टीवी या टेबलेट्स, लैपटॉप वैगरह पकड़ाना शुरु कर दिया। इसे ये सब चलाने वालों ने समझा और एक अलग तरह का शोषण शुरु हो गया?

टीवी, मोबाइल, इंटरनेट अच्छा भी दिखाता है और बुरा भी। वक़्त इसके कारण कहाँ जाता है, पता ही नहीं चलता? माँ, बाप भी अपना काम ऐसे में आसानी से कर पाते हैं। क्यूँकि, बच्चे ये सब मिलने के बाद तो माँ, बाप को जैसे भूल ही जाते हैं? और माँ-बाप बच्चों को? दोनों का काम आसान हो गया? या मुश्किल? ये वक़्त बताता है? 

ये सिर्फ बच्चों पर लागू नहीं होता। बड़ों पर भी होता है। मतलब, लोग मोबाइल, टीवी, इंटरनेट की दुनियाँ में इतने वयस्त हो गए, की एक दूसरे को ही भूल गए? पहले मुझे लगता था की ये ज्यादातर शहरों की समस्या है। मगर, गाँव आकर समझ आया, की शहरों से ज्यादा, गाँवों या कम पढ़े लिखे लोगों की ज्यादा है? इसलिए उन्हें अपने बच्चों के बारे में ही नहीं पता होता की वो क्या देख रहे हैं, क्या सुन रहे हैं या क्या कर रहे हैं? और घर के लोगों में दूरियाँ बढ़ती जाती हैं। एक दूसरे के बारे में ही नहीं पता, तो वो कैसे घर? कैसा घर-कुनबा? इसका फायदा सर्विलांस एब्यूज करने वाली पार्टियाँ और कम्पनियाँ बड़ी आसानी से भुनाती हैं। ऐसे लोगों को रोबॉट बनाना बहुत ही आसान होता है। एक दूसरे के ही खिलाफ प्रयोग करने में, ये अहम भूमिका निभाता है। 

पहले मुझे लगता था की मैं 10th के बाद ही घर और गाँव से दूर हो गई, तो शायद मेरा घर पर विचारों में मतभेद का ये अहम कारण है। क्यूँकि, मैं यहाँ रही ही कहाँ? 

यहाँ आकर पता चला, की मैं थोड़ा दूर रहते हुए भी पास थी। कम से कम फ़ोन पर तो, सबसे बात हो जाती थी। यहाँ तो पास होते हुए लोगों के पास वक़्त नहीं, एक दूसरे के लिए। लोगबाग यहाँ आसपास रहते हुए, एक-दूसरे के बारे में कहीं और से ही ज्ञान लेते हैं। और वहीं मार खाते हैं। जो बच्चे स्कूल के बाद ही पढ़ाई छोड़ देते हैं, या स्कूल के वक़्त ही उल्टे-सीधे केसों में फँस जाते हैं, उनके लिए ये दूरी बहुत बड़ी भूमिका निभाती है। राजनीतिक पार्टियाँ ऐसे बच्चों को बर्बाद करने में कोई कसर नहीं छोड़ती।      

सामान्तर घड़ाईयाँ, इसका जीता जागता उदाहरण हैं। लेकिन ये सामान्तर घड़ाईयाँ हैं बड़ी अज़ीब। जैसे कुछ एक केसों में पीछे बताया, की कितना बढ़ा-चढ़ाकर या तोड़-मरोड़ कर घड़ी जाती हैं, ये सामान्तर घड़ाईयाँ। थोड़ा पता होगा तो लगेगा, यहाँ और वहाँ जैसे एक जैसा-सा हो रहा है। मगर, जब पास से हर रोज ऐसी सामान्तर घड़ायीयों को होते देखोगे, तब समझ आएगा की बढ़ाना-चढ़ाना, तोड़ना-मरोड़ना या कुछ नया मिर्च-मसाला जोड़ना, ऐसे में कितना आसान है। 

जैसे?

कहाँ फेसबुक पर झंडा गाडना और कहाँ किसी लेट को रेत से भरकर, उसपर झंडा गाडना? दोनों एक ही बात हैं क्या?

ऐसे ही जैसे, कहाँ टाँग तुड़वाकर बैड पे पड़ा होना या ऑफिस से छुट्टी लेकर फिजियो और एक्सेरसाइज़ पर सारा दिन बिताना और कहाँ वो तो live-in रह रहे थे का, किसी और स्कूल बच्चे का केस? स्कूल बच्चे का केस?

ऐसे ही जैसे, कहाँ किन्हीं रिश्तों पर जुए के नंबरों की मार और कहाँ किसी को दुनियाँ से ही उठा देना? एक ही बात हैं क्या?

ऐसे ही जैसे, एक कोई छेड़छाड़ या रेप का केस और कहाँ उन्होंने कट्टे से फलाना-धमकाना को उड़ा दिया। एक ही बात है? 

ऐसे ही जैसे, कहाँ किताबों का पढ़ना, लाब्रेरी या किताबों का लेन-देन और कहाँ CHAT-GPT, AI और उनके प्रयोग और दुरुपयोग?

ऐसे ही जैसे, कहाँ बन्दूक या पिस्तौल की गोली और कहाँ चोरी-छिपे, खाने-पानी में किन्हीं गोलियों की सप्लाई? 

ऐसे ही जैसे, कहाँ किसी चैट में या ऑनलाइन गुनाह के फूटप्रिंट्स का होना और कहाँ मकानों, दुकानों या ऑफिसों की ईमारतों और सामान में?

ऐसे ही जैसे, कहाँ राजनीति के जुए की बिमारियों की घढ़ाईयाँ और कहाँ खाना-पानी और हवा को प्रदूषित कर, लोगों की सेहत या ज़िंदगियों से ही खेलना?  

ऐसे ही जैसे?

कितने ही, ऐसे ही जैसे, आपके अपने आसपास भरे पड़े हैं। इन्हें और इनके भेदों या फर्क को समझना बहुत जरुरी है, किसी भी स्वस्थ समाज के लिए या आगे बढ़ने के लिए।   

पीछे कुछ अजीबोगरीब से ड्रामे चले। या कहो की रोज चलते ही रहते हैं। मगर, जिनसे वो करवाते हैं, उन्हें उनके दुष्परिणाम कहाँ पता होते हैं? आगे यही ड्रामे करवाने वाले, क्या करेंगे इन लोगों के साथ?  

Thursday, May 15, 2025

Psychological warfare, Setting the narratives 5

 सुना, कुछ लोग, कुछ पोस्ट से बुरा महसुश कर रहे हैं? 

क्यों?

किसी ने आपपे जैसे देशद्रोही सी मोहर लगा दी? पाकिस्तानी कह रहे हैं? चीनी? नेपाली? या किसी भी तरह का अंग्रेज? या अफ्रीकन? जबकि, आप तो ऐसा कहने वालों से कहीं ज्यादा पक्के भारतीय हैं? तो बुरा तो लगना ही है? कौन हैं ये लोग, जो ऐसी कोई मोहर ठोक रहे हैं आपपे?  

आपका जन्म भारत का है? 

आपके माँ, बाप, दादा, नाना सब भारत में ही पैदा हुए? 

आपकी पढ़ाई और परवरिश भी भारत में ही हुई या हो रही है?

आपके सब पहचान पत्र भी भारत के ही हैं?

फिर आपको ऐसा कहने वाले या ऐसी मोहर ठोकने की कोशिश करने वाले लोग कौन हैं? और वो ऐसा, क्यों और कैसे कर पा रहे हैं?  

ये चालाक, ध्रुत और शातिर लोग हैं। 

इनको कहानियाँ घड़नी आती हैं। 

सिर्फ कहानियाँ? अरे नहीं, वो तो कितने ही घड़ लेते हैं। 

इनको ज़िंदगियाँ तोड़नी और मरोड़नी आती हैं। 

ये काफी पढ़े-लिखे और दुनियादारी से कढ़े लोग हैं। 

अरे ! अरे ! आप वाली दुनियाँदारी नहीं। इन्होने सच की दुनियाँ देखी हुई है या शायद दुनियाँ भर में घुमते हैं या दुनियाँ जहाँ का ज्ञान है। 

ये किसी क्षेत्र या भाषा में नहीं बंधे हुए। मगर, आप जैसों को बाँधने के औजार (टूल्स) रखते हैं। 

ये आपसे ज्यादा, आप पर और आपके बच्चों पर वक़्त लगाते हैं। ये बहुत अहम है। 

इन्हें इंसानों को ही नहीं, दूसरे जीव-जंतुओं और निर्जीवों तक को अपने अनुसार घड़ना (चलाना) आता है।   

ये आपकी अपनी राजनीतिक पार्टियाँ और ज्यादातर अन्तर्देशीय कम्पनियाँ और उनके पढ़े-लिखे और कढ़े लोग हैं। 

ये समाज को अपने अनुसार घड़ने का काम करते हैं।  

तभी इन्हें पैसा और कुर्सियाँ मिलती हैं। 

ये रोज-रोज के छोटे-मोटे जीने के संसाधनों को इक्कठ्ठा करने के चक्कर में नहीं। बल्की, वर्चस्व की लड़ाई लड़ते हैं। जिनसे इन्हें और ज्यादा पैसा और ताकत मिलती है। 

कैसे?

नैरेटिव सेट करके। आपके आसपास का माहौल घड़ कर। Media Culture Lab 

आपमें भी है क्या ऐसी ताकत? या आप इन्हीं लोगों की एक छोटी-सी कड़ी का काम करते हैं? अपने रोज-रोज के छोटे-मोटे जीने के संसाधनों को इक्कठ्ठा करने के चक्कर में? जानते हैं आगे, की आप क्या कर रहे हैं और ये क्या?  

Wednesday, May 7, 2025

Psychological warfare, Setting the narratives 4

 इस जहाँ में लोगबाग रिश्ते-नाते भूल जाते हैं? जाने किस, किसको, क्या-क्या सोचने समझने लग जाते हैं? और?

रिश्ते ना सिर्फ तार-तार होने लगते हैं, बल्की, कहीं इन्हीं Psychological, Physiological और adulterated खाना, पानी या हवा की वजह से बिमारियों की चपेट में आने लगते हैं। कहीं ये बिमारियाँ सिर्फ साइकोलॉजिकल होती हैं और कहीं जहाँ रह रहे होते हैं या जिस आसपास के वातावरण को झेल रहे होते हैं, उस मीडिया कल्चर की देन। सबसे बड़ी बात, उस मीडिया कल्चर का अपना एक कोड, हर इंसान के आसपास मँडराता है जैसे। ठीक ऐसे, जैसे, microbio के मीडिया कल्चर का। जिसमें कुछ खास केमिकल्स होते हैं और एक खास मात्रा। एक खास समय तक कोई रिएक्शन और उसका कोई खास प्रभाव।      

जैसे, एक, दो कैमिकल्स के भी ना होने से या कम और ज्यादा मात्रा में होने से, किन्हीं खास कैमिकल्स को कम या ज्यादा वक़्त या कम वक़्त एक साथ देने से या किसी खास तरह से इंफेक्ट करने से, रिजल्ट अलग-अलग होते हैं। वैसे ही, किसी खास सिस्टम के कोड के इधर-उधर होने से या कम या ज्यादा वक़्त एक साथ या दूर होने से ही कितना कुछ बदल जाता है। यही खेल ये राजनीतिक पार्टियाँ, बड़ी-बड़ी कम्पनियों के साथ मिलकर खेल रही हैं। उसमें आपके जन्म से लेकर मर्त्यु तक सब आता है। सब तरह के उतार-चढाव। बल्की, कहना चाहिए की आपके गर्भ में आने से लेकर, पुनर्जन्म तक के कोढों की माया के जाले बिछे होते हैं। कहीं हकीकत और कहीं महज़ साइकोलॉजिकल। सर्विलांस एब्यूज और इंटरडिप्लीनरी ज्ञान-विज्ञान का प्रयोग और दुरुपयोग, इस सबमें बड़ी अहम भूमिका निभाते हैं।  

इस कोड को, यहाँ के सिस्टम के अनुसार ये बीमारी होगी। 

इस कोड को यहाँ के सिस्टम के अनुसार,  फलाना धमकाना पेपर में इतने नंबर आएँगे।     

इस कोड को, यहाँ के सिस्टम के अनुसार, इतना फायदा होगा या इतना नुक्सान होगा। 

इस कोड को, यहाँ के सिस्टम के अनुसार, इतने बच्चे होंगे। 

इस कोड की, यहाँ के सिस्टम के अनुसार शादी ही नहीं होगी। 

इस कोड की, यहाँ के सिस्टम के अनुसार इतनी लम्बी ज़िंदगी होगी। 

इस कोड की ज़िंदगी में, यहाँ के सिस्टम के अनुसार इतने झमेले और परेशानियाँ झेलनी पड़ेंगी।

इस कोड के जैसे इंसानो की, यहाँ के सिस्टम के अनुसार इतनी जनसंख्याँ होगी। 

इस कोड के जीवों की, यहाँ के सिस्टम के अनुसार इस राज्य या देश में इतनी और इतनी जनसँख्या होगी। 

इस जनसख्याँ में यहाँ के सिस्टम के कोड के अनुसार इतने बच्चे, इतने युवा और इतने बड़े होंगे।  

संभव है क्या? या ऐसा हो रहा है? ऐसा ही नहीं, बल्की, इससे ज्यादा बहुत कुछ हो रहा है। 

तो अगर कहीं का सिस्टेमेटिक कोड आपको या आपके किसी अपने को सूट नहीं कर रहा, तो क्या करोगे? झेलोगे उसे?  

या अगर आपको इतनी-सी जानकारी भी हो गई, तो धीरे-धीरे उसके दुस्प्रभावोँ से बचने के रस्ते भी पता लगते जाएँगे? 

तो क्या हर इंसान के लिए डिज़ाइनर सिस्टेमेटिक कोड घड़ा जा सकता है? या कम से कम optimise तो जरुर किया जा सकता है?

या कहना चाहिए, की वो भी इसी सिस्टेमेटिक कोड की जानकारी में कहीं छुपा है?   

और ऐसा होने पर कहीं की भी राजनीतिक पार्टियाँ, इन बड़ी-बड़ी कंपनियों के साथ मिलकर, आम इंसान का इतना और इतनी आसानी से यूँ शोषण नहीं कर पाएँगी? जितना और जितनी आसानी से अब कर पा रही हैं?  

Tuesday, May 6, 2025

Psychological warfare, Setting the narratives 3

एक दिन ऐसे ही किसी ऑफिसियल काम से चंडीगढ़ जाना था? सालों पहले की बात है, रोहतक से चली ही थी तो सोचा क्यों ना पहले सोनीपत का रुख किया जाए? कई सारे प्रश्न थे दिमाग में, जिनके उत्तर चाहिएँ थे। अब मैं उनमें से नहीं, जो सुनी-सुनाई बातों पर विश्वास करे। या ईधर-उधर के लोगों से बात करे। यहाँ सीधा-स्पाट बात वहीँ होती है, जहाँ के प्र्शन होते हैं। खासकर, तब तो और जरुरी हो जाता है, जब इधर-उधर से विश्वास लायक जवाब नहीं मिलते। बल्की, कुछ ऐसे मिलते हैं, की कुछ और प्र्शन दे जाते हैं? जैसे, फिर ये शादी नाम का घपला क्या है? आजकल किसी चैनल ने सुना है, कोई सिँदूर बचाओ अभियान भी चलाया हुआ है? किसका सिँदूर? अहम बात हो सकती है, यहाँ पर? मेरे आसपास कई हैं, उनका? या सोनीपत में किसी का? और RAW का या FBI का, या ऐसी ही किसी और इंटेलिजेंस एजेंसी का, ऐसे किसी सिन्दूर से क्या लेना-देना? खैर। उन दिनों आसपास के सिंदूरोँ का कोई ज्ञान ही नहीं था। या कहो की Conflict of Interest की राजनीती के पैदा किए, वो सिँदूर पता नहीं कहाँ पढ़ रहे थे? या क्या कर रहे थे? हकीकत तो ये है, की उन दिनों Conflict of Interest की राजनीती क्या होती है, यही नहीं पता था।   

अब जहाँ की तरफ गाडी मोड़ दी थी, मेरे हिसाब से वहाँ मैं एक नए इंसान को छोड़, बाकी सबसे मिल चुकी थी और थोड़ा बहुत शायद उन्हें जानती भी थी। तो पहुँच गई, उस घर? नहीं, उसके भाई के घर। क्यूँकि, अब वो अलग-अलग रह रहे थे, आसपास ही। थोड़ी बहुत बात हुई, और वो मुझे पास ही उस घर ले आए। पता नहीं क्यों लगा, की कुछ तो गड़बड़ है। जाने क्यों किसी ने मिलने में ही बहुत वक़्त लगा दिया। मगर क्या?  

उसके बाद थोड़ा बहुत उस पर, इधर इधर सुनने-पढ़ने को मिला। और मेरा यूनिवर्सिटी में ही कहीं आना-जाना थोड़ा ज्यादा हो गया। वहाँ सब राज छिपे थे शायद। 

यहाँ से एक अलग ही दुनियाँ की खबर होने लगी थी। इस दुनियाँ का दायरा थोड़ा और बढ़ने लगा था। और जितना ज्यादा जानना चाहा, वो बढ़ता ही गया। तो ये मिनिस्ट्री ऑफ़ होम अफेयर्स क्या है? इसमें कौन-कौन हैं? और इसके मुद्दे कहाँ-कहाँ घुमते हैं?

Ministry of home affairs?

Psychological warfare?  

Setting the narratives?

सिँदूर की राजनीती या कांडों पे पर्दा डालने की?

With all due respect to Ministry of home affairs?


जब गाँव आई, तो Conflict of Interest की राजनीती के पैदा किए, सिन्दूर-युद्ध के ड्रामों से आमना-सामना हुआ। शुरु-शुरु में तो समझ ही नहीं आया, की राजनीती भला इतने लोगों की ज़िंदगियों से कैसे खेल सकती है? जिनकी ज़िंदगी के युद्ध, बड़े ही छोटे-छोटे से रोजमर्रा की ज़िंदगी की, छोटी, छोटी-सी परेशानियों में दिखे। 

किसी को इतनी-सी समस्या है की वो अपनी ससुराल, खाना-पीना तक अपनी मर्जी से नहीं खा-पी सकते? पता नहीं, सास कहाँ-कहाँ ताले जड़ देती है?

किसी को इतनी-सी समस्या है, की उसे घर में बंद कर सास-पति पता ही नहीं, कौन-से सत्संग चले जाते हैं। और कई-कई दिन तक घर नहीं आते और घर में कुछ खाने तक को नहीं?

किसी की इतनी-सी चाहत है, की उसको अपने घर का रोजमर्रा का प्रयोग होने वाला सामान इक्क्ठ्ठा करना है। वही नहीं है?

किसी के हालात ऐसे बना दिए गए, की आने-जाने तक के पैसे नहीं? किसी के पास पहनने को नहीं? किसी के पास मकान नहीं? किसी के पास ये नहीं, और किसी के पास वो?

तो वो है ना जो, जो लड़की अभी-अभी घर आई है, उसके पास ये सबकुछ है, छीन लो उससे? उसे इतना तंग करो, की या तो आत्महत्या कर ले या तंगी से मर जाए। नहीं तो निकालो उसे गाँव से भी। 

ये खामियाज़ा भाभी ने भुगता? इससे भी बुरा कुछ गुड़िया के साथ करने की कोशिशें हुई, इसी Conflict of Interest की राजनीती द्वारा। फिर मैंने तो जो देखा, सुना या भुगता, ऐसे-ऐसे, रोज-रोज के ड्रामों की देन, वो कोई कहानी ही अलग कह गया शायद?

इन सब लड़कियों की दिक्कत क्या है? 

Independent ना होना? Economic Independence आपको कितनी ही तरह के अनचाहे दुखों और Conflict of Interest की राजनीती के पैदा किए, अनचाहे युद्धों तक से काफी हद तक बचाती है। मुझे लगता है, की मेरे पास अपना पैसा या इधर-उधर अगर थोड़ा-बहुत सुप्पोर्ट सिस्टम ना होता, तो मैं क्या, ये Conflict of Interest की राजनीती मुझे ही नहीं, बल्की, पूरे घर को खा चुकी होती। 

इन लड़कियों की और इन जैसी कितनी ही लड़कियों की समस्या, सिन्दूर का होना या ना होना नहीं है। हकीकत ये है, की अगर ये Economically Independept हों, तो ये तो कोई मुद्दा ही नहीं है। कुछ एक Economically Independept होते हुए भी इस जाल में फँसी हुई हैं, तो वो आसपास के Media Culture की वजह से। कमाते हुए भी, उन्हें नहीं मालूम, की वो पैसे उनके अपने हैं। अपनी और अपनों की ज़िंदगी को आसान बनाने के लिए हैं। किन्हीं लालची और बेवकूफ लोगों के शिकंजों में रहने के लिए नहीं। 

आगे किन्हीं पोस्ट में बात होगी, आसपास द्वारा किए गए उन रोज-रोज के ड्रामों की भी। और कौन करवाता है वो सब उनसे? सबसे अहम कैसे? Emotional Fooling, Twisting and Manipulating Facts, Psychological warfare,  Setting the narratives.      

Psychological warfare, Setting the narratives 2

 आप abcd सीख रहे हैं, इकोनॉमी (economy) की? बाजार, मार्केट या स्टॉक बाजार क्या होता है, उसकी? चलो अच्छा है, देर आए, दुरुस्त आए। एक ठीक-ठाक सी ज़िंदगी जीने के लिए इसे समझना बहुत जरुरी है।

आम इंसान हर रोज युद्ध लड़ता है। उसकी ज़िंदगी में हर रोज किसी न किसी तरह की जंग चलती ही रहती है। उसकी उस जंग को थोड़ा कम करने या आसान बनाने में जो सहायता करता है, वो हैं आपके अपने? सरकारें या कोई भी राजनीतिक पार्टी, आपकी ये सहायता तब तक नहीं करती, जब तक उनकी अपनी कोई स्वार्थ सीधी ना हो? सरकारों की या राजनीतिक पार्टियों की अपनी स्वार्थ सीधी क्या होगी? कुर्सियाँ? और ज्यादा कुर्सियाँ? और ज्यादा वक़्त तक के लिए कुर्सियाँ? वो कुर्सियाँ क्या आपका भला करने के लेते हैं? इतनी मारामारी उन कुर्सियों की क्या आपके लिए होती है? संभव है क्या? ज्यादातर, उनके अपने निहित स्वार्थ होते हैं। उन निहित स्वार्थों की पूर्ति के लिए ही इन राजनीतिक पार्टियों ने Conflict of interest की राजनीती के जाले बुने हुए हैं, हर जीव और निर्जीव के इर्द-गिर्द। ये निहित स्वार्थ हैं, ज्यादा से ज्यादा पाने की होड़। पैसा, ज़मीन-ज़ायदाद और वर्चस्व। कण्ट्रोल, जहाँ कहीं और जितना आप कर सकें। 

इसमें  Psychological warfare क्या है?

कहीं आप पढ़, सुन रहे हैं, की किस कदर आपको रिकॉर्ड और मैनिपुलेट (Manipulate) किया जा रहा है? कैसे आपको रोबॉट-सा प्रयोग या दुरुपयोग किया जा रहा है? वो भी आपके खिलाफ और आपके अपनों के ही खिलाफ?

Setting the narratives, Psychological warfare है।  

युद्ध, युद्ध, युद्ध? युद्ध मुद्दा है क्या? फिर क्या है? मुद्दों से ध्यान भटकाने की राजनीती? कौन रच रहा है? राजनीतिक पार्टियाँ? बाजार? टीवी चैनल्स? या इन सबकी मिलीभगत?   

मीडिया कल्चर? और मानव रोबॉटिकरण?           

Friday, May 2, 2025

Psychological warfare, Setting the narratives 1

Psychological warfare

Setting the narratives

पीछे पोस्ट में जितनी भी फोटो हैं, वो एक ही दिन, एक छोटे से विजिट की हैं। अपने पास के ही खेत के विजिट की, जिसमें पता चला की हडपम-हडपाई का अगला दाँव चला जा रहा है। कई दिनों से जाने क्यों मुझे लग रहा था, की कुछ गड़बड़ है। भाई ने फिर से घर आना छोड़ दिया था या कई-कई दिनों में आने लगा था। यहाँ रहने के दौरान जो नोटिस किया वो ये, की ये खास तरह के कर्फ़यू, जब लगते हैं, जब कुछ खास चल रहा हो या होने वाला हो। खास तरह की सप्लाई शुरू हो जाती है और उसके आसपास के घेरे भी खास होते हैं। फ़ोन या तो बंद हो जाता है या फिर गुम हो जाता है। ये रोबॉटिकरण की एक एनफोर्समेंट वाली प्रकिर्या है। ऐसे में किसको पास रखना है और किसको दूर। जिसमें किसी भी जीव के आसपास का माहौल सैट करना होता है। उस माहौल सेटिंग में आप उसे कुछ खास लोगों से बिलकुल कट कर सकते हैं या उसकी जगह भी बदल सकते हैं। उस दौरान वो इंसान जो कुछ सुनता-समझता या देखता है, वही नैरेटिव सेटिंग (Setting the narratives) है। 

शायद सेनाएँ या उग्रवाद तैयार करने वाले भी इसी तरह की ब्रेन वाश जैसी-सी तकनीक का इस्तेमाल करती है? यही तकनीक न सिर्फ मानव रोबॉटिकरण में सहायक है, बल्की, बीमारियाँ पैदा करने और दूर करने में भी। लोगों को लाइफस्टाइल जैसी बिमारियों से, नशा मुक्ति की प्रकिया में या उसके रहने वाले इकोसिस्टम की बिमारियों से मुक्ति की भी। और लोगों को हॉस्पिटल पहुँचाने और वहाँ से ऊप्पर पहुँचाने की भी। इतनी सी बात, इतना कुछ कर जाती है?     

नैरेटिव सेटिंग के कुछ उदाहरण जानने की कोशिश करें? 

तुम हमारी जमीन खा गए। दादा ने हर जगह सारा अच्छा-अच्छा हिस्सा तुम्हें दे दिया। हमें तो कुछ भी नहीं दिया। हर जगह पीछे बिठा दिया। जब अलग हुए, तो पापा के पास कुछ भी नहीं था। 

अरे क्या बोल रहा है ये तू? दादा ने? कौन से दादा ने? 

हमारे अपने दादा ने और किसने?

अच्छा? तुझे किसने बताया ये? तेरे प्यारे दादा वालों ने? कहीं उन्होंने ही तो नहीं बाँटा सब?   

बताया क्या। अब हम बच्चे थोड़े ही हैं। 

कह तो सही रहा है की अब हम बच्चे थोड़े ही हैं। मेरे भाई भी यही बोलते हैं की सारा मैं खा गई। मुझे तो वहाँ भी गड़बड़ लगती है। अब मैं खा गई या हम खा गए तो कुछ तो देना बनता है। तू पढ़ ले, पैसे मैं दूँगी। बस इतना ही खा गई ना? या मैं जो कहूँ, वो करले, तेरा इंटरेस्ट भी है और उसमें पैसा भी। 

हूँ। अब वो सब नहीं होना। 

अरे अब तो और आसानी से होगा। वैसे भी जिसके लिए इतनी नफरत और मारामारी चल रही है, वो है ही क्या? और सुन, पहले घर जाके ये पूछ की ये सब बाँटा किसने था? और पहली चॉइस किसकी थी लेने की। उसके बाद बात करना। और तुम तो उस वक़्त तक पैदा ही नहीं हुए थे। या हो गए थे? कितने बड़े थे?  

ट्रिंग ट्रिंग ट्रिंग 

हैलो। हाँ आ रहा हूँ। कहा ना अभी आया। 

दीदी फिर आऊँगा। फ़ोन है अभी घर से। 


ऐसे ही एक दिन जिन दिनों ये ज़मीन की बातें उड़ रही थी की भतीजे ने धोखे से ले ली और चाचा का लड़का बिचौलिया दिलवाने वाला। 

तो तूने किया है ये कबाड़? तुझे लगता है बहन देने देगी?

मैं क्यों करुँगा? मेरा क्या मतलब?

वही तो तेरा क्या मतलब? तुझे बचाना चाहिए या बिचौलिया बनकर देना? 

वैसे भी तेरी ज़िंदगी में कुछ अच्छा करने लायक नहीं बचा क्या? कितना मिल जाएगा इससे तुझे? कहीं अपनी से भी तो हाथ नहीं धो बैठेगा? अपनी क्यों नहीं दी, वो दे देते। 

मैंने कुछ नहीं किया। 

मेरे पास सबूत हैं। 

होंगे। क्या कर लोगे? 

ट्रिंग ट्रिंग ट्रिंग 

सर्विलांस एब्यूज? करवाने वाली पार्टी की हर किसी पर निगाह और कान हैं। फिर क्या घर और क्या बाहर। जैसे ही सामने वाला उगलने लगता है या अपनी ही जुबाँ से फँसने लगता है। ट्रिंग ट्रिंग शुरू हो जाती है। 


एक दिन ऐसे ही भतीजा आया हुआ था साथ वाले मकान में। उसे बुला लिया। 

बातों ही बातों में 

तुमने ज़मीन कितने की ली?

जी?

जी? कितने की है वो ज़मीन? घर पूछा क्या की देंगे या नहीं? इतने सालों से क्यों नहीं दी?

अरे बुआ जी वो तो सेफ्टी के लिए ली है। 

सेफ्टी? क्या खतरा था?

दुनियाँ मंडरा रही थी उसपर। हम नहीं लेते तो कोई और लेता। 

दुनियाँ तो कितने ही सालों से मँडरा रही थी। मिली तो नहीं किसी को। मिलेगी अब भी नहीं। धोखाधड़ी के सारे सबूत धरे हैं। 

फ़ोन उठाकर बात करते हुए। हाँ आ रहा हूँ। आ गया बस। 

चले जाना जल्दी कहाँ है। वो पैसे कहाँ है ये भी बता दो। उस फरहे में पाँच कुछ हैं और आंटी 30-35 लाख बोल रहे थे। जो जमीन देनी ही ना हो, वो तो अनमोल है। उसका क्या मोल लगाओगे तुम?

भतीजा फुर्र हो चुका। 

यही नहीं ऐसे-ऐसे कितने ही नैरेटिव हैं। जहाँ, जैसे ही कुछ बात होने लगेगी, वैसे ही ये ट्रिंग ट्रिंग भी। 

बोतलों के दामों पर तो पूरी कहानी की किताब लिखी जा सकती है। वो कब क्या बोलेगा, ये इस पर निर्भर करता है की वो किनके बीच रहकर आया है। उससे भी बड़ी बात, 

कोई पार्टी किसी लड़के को लड़की या LGBT या बाबा का किरदार कब और कैसे थमाती है? 

उसे किसी ट्रिगर की तरह ब्रेक कैसे करवाती है? 

कौन से और कैसे-कैसे catalysts उसमें काम करते हैं?

Game of Imitation? Wanna limit something? Hype? Or even Hijack? Political parties use and abuse hijack mode?

आदमी को बाबा बनाना या शादीशुदा? ये भी उसका इकोसिस्टम बनाता है? और ये इकोसिस्टम कौन घड़ता है? राजनीतिक पार्टियाँ? गजब नहीं है?  


सर्विलैंस एब्यूज और मानव रोबॉटिकरण की प्रकिर्या?               

Electrical warfare?

Infecting electric appliances and wires and damaging them also? सिर्फ इकॉनमी को इम्पैक्ट करता है? या उससे आगे भी बहुत कुछ घड़ता है?  

मोदी ने घर-घर बिजली पहुँचा दी। सुना कहीं? कहाँ? कब? अब ये कैसी बिजली पहुँचाई, ये वाद-विवाद का विषय हो सकता है? क्यूँकि, बिजली तो यहाँ के गाँवों में कब से है? और ये वाली बिजली मोदी ने ही पहुँचाई है क्या? वैसे, इस खास वाली बिजली की क्या जरुरत? मोबाइल ही बहुत नहीं हैं, सर्विलांस एब्यूज के लिए तो?

सोचो आप अपने घर के बाहर खड़े हैं। एक दो और और माँ, काकी हैं। ऐसे ही कोई बात चल रही है। आपने कोई प्र्शन किया। और उन्होंने उत्तर दिया। 

वापस घर आकर आप इंटरनेट पर कुछ सर्च कर रहे हैं और गूगल सर्च इंजन वही प्र्शन दिखा रहा है? मगर, ये क्या उत्तर देते वक़्त घपला कर रहा है? ऐसा क्या खास होगा उसमें?

ऐसे ही बहुत बार यूट्यूब पर भी हुआ होगा? आप इस घर से उस घर जा रहे हैं। बच्चे ने कुछ खाने की फरमाईश की है। आपने आकर अपना काम करने के लिए यूट्यूब खोला और ये क्या? यूट्यूब के शुरू के कुछ विडियो वही खाने की रेसिपी दिखा रहे हैं। 

ऊप्पर के दोनों ही केसों में मोबाइल उस वक़्त किसी के भी पास नहीं था। फिर?

आसपास तारें, खंबे, गाड़ियाँ, मीटर और भी कितना कुछ होगा? सिर्फ गवर्नमेंट्स या लॉ इंफोरसेनमेंट एजेन्सियाँ ही नहीं, गूगल और यूट्यूब जैसे सर्च इंजन भी आप पर हर वक़्त, हर जगह निगरानी रखते हैं। और बिना पूछे उत्तर भी देते हैं। और जहाँ आप कुछ पूछना या जानना चाहें, वहाँ कभी-कभी छिपाने की कोशिश भी करते हैं? रौचक? इससे आगे भी बहुत कुछ है।